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विश्वविद्यालय में “हिमालय के लोकवृत्त में उत्तराखण्ड का भाषा परिवार” विषय पर द्वि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन

विश्वविद्यालय में “हिमालय के लोकवृत्त में उत्तराखण्ड का भाषा परिवार” विषय पर द्वि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन

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उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी; उत्तराखण्ड भाषा संस्थान, देहरादून एवं केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के संयुक्त तत्वावधान में “हिमालय के लोकवृत्त में उत्तराखण्ड का भाषा परिवार” विषयक द्वि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय परिसर में आयोजित हो रहा है। द्वि-दिवसीय संगोष्ठी का शुभारंभ पुस्तक मेले के उद्घाटन से हुआ। पुस्तक मेले का उद्घाटन प्रसिद्ध भाषाविद् प्रो० वी. आर. जगन्नाथन द्वारा किया गया। इस अवसर पर विश्वविद्यालय के माननीय कुलपति प्रो० नवीन चन्द्र लोहनी, प्रो० जगत सिंह बिष्ट, पूर्व कुलपति, एस०एस०जे० विश्वविद्यालय, अल्मोड़ा; प्रो० देव सिंह पोखरिया, कुमाऊनी के वरिष्ठ साहित्यकार; तथा प्रो० जितेन्द्र श्रीवास्तव, हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार, भी उपस्थित रहे। इन विद्वानों की उपस्थिति ने संगोष्ठी को बौद्धिक गरिमा एवं सांस्कृतिक ऊष्मा प्रदान की। पुस्तक मेले में उत्तराखण्ड की स्थानीय भाषाओं, लोकसंस्कृति एवं साहित्य से संबंधित विविध पुस्तकों का प्रदर्शन विशेष आकर्षण का केंद्र रहा।
संगोष्ठी के औपचारिक सत्र का शुभारंभ विश्वविद्यालय के संगीत विभाग द्वारा प्रस्तुत समूहगान “उत्तराखण्ड मेरी मातृभूमि” से हुआ। इस सुमधुर प्रस्तुति ने वातावरण को भावनात्मक एवं सांस्कृतिक सौंदर्य से भर दिया। मंचासीन अतिथियों द्वारा संयुक्त रूप से दीप प्रज्ज्वलन कर कार्यक्रम से औपचारिक शुभारंभ किया गया। तत्पश्चात विश्वविद्यालय का कुलगीत प्रस्तुत किया गया। संगोष्ठी में अतिथियों का स्वागत प्रो० गिरिजा प्रसाद पांडे, निदेशक, मानविकी विद्याशाखा ने सभी विशिष्ट अतिथियों, विद्वानों एवं प्रतिभागियों का स्वागत करते हुए उत्तराखण्ड की भाषाई विविधता और उसके विकास क्रम पर विचार व्यक्त किए। उन्होंने लुप्त होती भाषाओं के संरक्षण की आवश्यकता पर बल दिया तथा “विविधता में एकता” को भारतीय समाज की विशेष पहचान बताया। समारोह संयोजक डॉ० शशांक शुक्ल ने संगोष्ठी के उद्देश्य और विषय-वस्तु पर प्रकाश डालते हुए विषय-प्रवर्तन में कहा कि बोली और भाषा के मध्य कृत्रिम भेद को समाप्त करने का समय आ गया है। उन्होंने हिमालयी भाषाई परंपरा के अध्ययन एवं संरक्षण हेतु संयुक्त अकादमिक प्रयासों की आवश्यकता पर बल दिया। प्रो० वी. आर. जगन्नाथन, प्रख्यात भाषाविद्, ने अपने बीज वक्तव्य में उत्तराखण्ड की भाषाई संपदा और हिंदी की वर्तमान स्थिति पर विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि हिंदी की विविध बोलियाँ उसकी जीवंतता का प्रमाण हैं। अंग्रेजी के वैश्विक प्रभाव की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि भारत में भाषाई नीति का संतुलन अत्यंत आवश्यक है ताकि हिंदी और उसकी बोलियों — दोनों का समानांतर विकास हो सके। उन्होंने सुझाव दिया कि क्षेत्रीय भाषाओं के पारस्परिक संवाद से राष्ट्रीय एकता और भाषाई विकास दोनों सुदृढ़ होंगे। विशिष्ट वक्तव्य देते हुए हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार प्रो जितेंद्र शिर्वास्तव ने कहा कि भारत की भाषाएँ एक-दूसरे को जोड़ती हैं, काटती नहीं। हिंदी को राष्ट्र की भाषा के रूप में देखा जाना चाहिए, न कि किसी विशेष क्षेत्र की भाषा के रूप में। उन्होंने औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति एवं भाषाओं के रोजगारपरक विकास की आवश्यकता पर बल दिया। अगले वक़्त के रूप में प्रो लक्ष्मण सिंह बिष्ट ने हिंदी भाषा के अकादमिक स्वरूप को विकसित करने की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि भाषाई विवादों से ऊपर उठकर रचनात्मकता और साहित्यिक समरसता को बढ़ावा देना चाहिए। अगले वक्ता पूर्व कुलपति सोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय प्रो० जगत सिंह बिष्ट ने कहा कि हिमालय का लोकवृत्त अत्यंत विस्तृत है, जहाँ छोटे से भौगोलिक क्षेत्र में भी अनेक भाषाएँ और बोलियाँ विद्यमान हैं। उन्होंने उत्तराखण्ड की 14 प्रमुख भाषाओं एवं जनजातीय भाषाओं के संरक्षण की आवश्यकता पर बल दिया। डॉ० गजराज सिंह बिष्ट, महापौर, हल्द्वानी नगर निगम ने अपने वक्तव्य में अंग्रेजी भाषा के प्रभुत्व की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और उसके प्रभाव पर प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि किस प्रकार अंग्रेजी मानसिकता ने हिंदी के प्रसार को प्रभावित किया है तथा भारतीय संस्कृति पर उसके दुष्प्रभाव पड़े हैं। इस अवसर पर श्री प्रकाश चन्द्र तिवारी द्वारा रचित कहानी-संग्रह “किरायेदार” का लोकार्पण मंचासीन अतिथियों द्वारा किया गया। इसके पश्चात केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के निदेशक प्रो० सुनील कुलकर्णी ने वर्चुअल माध्यम से संबोधित करते हुए भाषाई विविधता के संरक्षण पर बल दिया। उन्होंने बताया कि घटती जनसंख्या के अनुपात के कारण कुछ भाषाएँ विलुप्त हो रही हैं और उन्हें बचाने के लिए नीतिगत प्रयास आवश्यक हैं। प्रो० नवीन चन्द्र लोहनी, कुलपति, ने अध्यक्षीय उद्बोधन में क्षेत्रीय भाषाओं की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि शिक्षा के माध्यम से भाषाओं को जनसामान्य तक पहुँचाना हमारी जिम्मेदारी है। कुलपति महोदय ने सभी अतिथियों एवं आयोजन समिति के प्रति आभार व्यक्त किया। सत्र का समापन डॉ० राजेन्द्र कैड़ा द्वारा धन्यवाद ज्ञापन के साथ हुआ, जिसमें उन्होंने सभी अतिथियों, प्रतिभागियों एवं आयोजन दल के सदस्यों का हार्दिक आभार व्यक्त किया। इस सत्र का संचालन डॉ अनिल कार्की ने किया।
संगोष्ठी का पहला समानांतर सत्र “कुमाऊनी की उपभाषाएँ और हाशिए का संदर्भ” विषय पर आयोजित था। इस सत्र में युवा साहित्यकार राजेश प्रसाद ने कहा कि नई पीढ़ी और AI के जमाने में हम अपनी बोलियों में भी शब्दों का प्रयोग अंग्रेजी में करने लगे है । दनपुरिया बोली जो बागेश्वर के दानपुर में बोली जाती है , इसका साहित्य लिखित रूप में कम मिलता है । दनपुरिया कुमाऊँनी के संबंध में गोपालदत्त भट्ट जी, मोहन जोशी जी के योगदान को भी रेखांकित किया । आज हमें उस बोली को संरक्षित करने की आवश्यकता है उसके संरक्षण करने की आवश्यकता है । इस सत्र की दूसरी वक्ता प्रो प्रभा पंत जी ने कहा कि लोग अपनी भाषा के इस्तेमाल में कहीं ना कहीं हीनता बोध के शिकार हो गए हैं । अपनी संस्कृति से जुड़ाव में भाषा का बहुत बड़ा योगदान है । हमारे लोकोत्सव का आयोजन जिन परिवारों में होता था उसके माध्यम से भी भाषा का संरक्षण होता था । उत्तराखंड में पलायन के कारण भाषा के हस्तांतरण में थोड़ी कमी आई है । पलायन में जहाँ सामूहिकता रही वहाँ भी हम अपनी बोली भाषा बचा ले गए । भाषा लोकजीवन में भी इतनी ही उपयोगी है जितना लोकसाहित्य में है । प्रो प्रभा पंत ने अपनी अभिव्यक्ति को अपनी भाषा में करने पर जोर दिया । उन्होंने कहा कि हमारी युवा पीढ़ी अब सचेत हो रही है , वह हमारे लोक गीतों , लोक नाटकों के ज़रिए सोशल मीडिया और यू ट्यूब जैसे प्लेटफार्मों के माध्यम से अपनी बोलियों और भाषा के प्रसरण और संवर्धन में योगदान दे रहें हैं । अगली वक्ता प्रो चन्द्रकला रावत ने कुमाऊँनी भाषा के विकास पर बात करते हुए बताया कि कुमाऊँनी के विविध बोली रूप हैं । बोली विभेद की वजह से कुमाऊँनी को पूर्वी और पश्चिमी कुमाऊँनी में बाँटा गया है । उन्होंने दोनों बोलियों के बारें में बताया । पूर्वी कुमाऊँनी बोली में ड़कार की प्रवृत्ति की बात की । पश्चिमी कुमाऊँनी में नकार की प्रवृत्ति की बात की । उन्होंने कहा कि भाषा को एक मानक रूप में सामने लाने की ज़रूरत है जिससे रोज़गार सृजन जैसे विषयों के संबंध में हम कुछ सार्थक कर सकें । वैश्वीकरण के इस दौर में गंभीर भाषायी संकट है जिससे विश्व की कई भाषाएँ ख़त्म हो गई और कई भाषायें ख़त्म होने की कगार पर हैं । उन्होंने सरकार के उत्तरदायित्व को रेखांकित करते हुए कहा कि राजभाषा , संपर्क भाषा और मातृ भाषा का प्रश्न भाषा के मानकीकरण से जुड़ा हुआ है । प्रो रावत ने ‘Society for endangered languages’ के योगदान को रेखांकित किया । उन्होंने भाषा के डिजिटल रूप में संरक्षित किए जाने की बात की । सत्र की अध्यक्षता कर रहे देव सिंह पोखरिया जी ने संस्कृत और दानपुरिया भाषा और असके अर्थों की साम्यता की बात की । उन्होंने बताया कि तमाम अपभ्रंशों से लोक भाषा ने जन्म लिया । खड़ी बोली हिंदी का एक शिष्ट रूप भारतेंदु के जन्म 1850 के बाद आया । कौरवी बोली के बारें में बात करते हुए उन्होंने बताया कि कौरवी खड़ी बोली का आधार है जिस पर उत्तराखंड मुक्त विश्व विद्यालय के कुलपति प्रो० नवीन चंद्र लोहनी के कार्य को भी रेखांकित किया उन्होंने कहा कौरवी का जिक्र उत्तराखंड में नहीं किया जाता जबकि कौरवी भी उत्तराखंड की एक भाषा , बोली है । 20 से अधिक बोलियाँ उत्तराखंड में है इसलिए उत्तराखंड का भाषायी लोक वृत्त काफ़ी विस्तृत है ।उन्होंने अपने वक्तव्य में बताया कि गंगा दत्त उप्रेती जी ने पर्वतीय भाषा प्रकाशक लिखा जिसका उद्देश्य अंग्रेजों को अपनी भाषा से परिचय करवाना था । उन्होंने उसमें 16 बोलियों का जिक्र किया ।कुमाऊँनी भाषा के विकास पर बात करते हुए उन्होंने लगभग 1000 ई० के आस पास इसकी उत्पत्ति बतायी। इस सत्र का संचालन डॉ कुमार मंगलम ने किया।
संगोष्ठी का पहला समानांतर सत्र ‘गढ़वाली की उपभाषाएँ और हाशिए का संदर्भ’ था। इस सत्र की अध्यक्षता डॉ. नंद किशोर हटवाल ने किया। उन्होंने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में गढ़वाली भाषा की समृद्ध परंपरा, उसकी उपभाषाओं की विविधता और बदलते सामाजिक संदर्भों में उनकी स्थिति पर प्रकाश डाला। साथ ही उन्होंने बताया की संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रिपोर्ट में उत्तराखंड की 13 स्थानीय भाषाओँ को संकटग्रस्त बताया. उन्होंने आगे कहा भाषाई संकट तुलनात्मक नजरिया है, अंग्रेजी की तुलना में हिंदी एक संकटग्रस्त भाषा है परन्तु गढ़वाली की तुलना में हिंदी एक समृद्ध भाषा है। उन्होंने बताया की भाषाई संकट मत्स्य न्याय क शिकार है, बड़ी भाषा छोटी भाषा को निगल रही है। साथ ही उन्होंने बताया की उत्तराखंड की दो लोक भाषाएँ तोल्छा गढ़वाली में और जौहारी कुमाउनी में परिवर्तित हो गयी है, यह भी भाषा समापन की उद्घोषणा ही है। भाषा की समस्याओं के समाधान बताते हुए उन्होंने भाषाओँ को पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरण के महत्व पर चर्चा की, लोक भाषा के “kitchen language” बनने की चेतावनी दी. उन्होंने भाषाओँ के प्रयोजन विस्तार की काव्श्यकता है ताकि व्यवसास और विज्ञान में भी सभी भाषाओँ क प्रयोग सुनिश्चित हो सके। सत्र की अध्यक्षता कर रहे डॉ. हटवाल ने सभी वक्ताओं के विचारों का संक्षेप प्रस्तुत करते हुए यह कहा कि भाषाई विविधता ही उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान का मूल है मुख्य अतिथि श्री गणेश खुगशाल ‘गणि’ ने मंच को संबोधित करते हुए गढ़वाली भाषा के संरक्षण में जनसहभागिता की भूमिका और साहित्यिक पत्रिकाओं के योगदान पर विचार रखे। उन्होंने बताया की हिंदी की उपभाषाओं के रूप में उत्तराखंड की अन्य भाषाओँ को स्वीकार करना कठिन है जबकि 8वीं सदी में गढ़वाली राजकीय भाषा के तौर पर उभरी और दूसरी ओर हिंदी 16वीं सदी में विकसित हुई। भाषा की स्थापना के उपरान्त ही उप्भाषाओं पर चर्चा की आवश्यकता है। बंगाणी टेहरी परिक्षेत्र की भाषा है, जौनसारी अपने में एक स्वतंत्र भाषा है, जिस में स्वंतंत्र कार्य की आवश्यकता है। भाषाओँ की समझ के साथ साथ इकाई स्तर पर लोक भाषा के प्रयोग पर बल दिया और अन्य भाषाओँ के चलन पर चिंता व्यक्त की। लोक भाषाओँ पर विश्वविद्यालय के योगदान की सहारना करते हुए, उन्होंने यह भी सुझाव दिया की उत्तराखंड के लोकवृत्त की भाषाओँ के समानांतर सत्र के आयोजन की तुलना में सम्मिलित सत्रों के आयोजन का सुझाव दिया। विशिष्ट अतिथि श्री रमाकांत बैंजवाल ने मंच को संबोधित करते हुए भाषा, संस्कृति और लोक साहित्य के पारस्परिक संबंधों पर अपने विचार प्रस्तुत किए। उन्होंने लिपि को मानव समाज में सबसे महत्वपूर्ण आविष्कार बताया, तदोपरांत इन्टरनेट और AI को भाषा के संरक्षण हेतू महत्वपूर्ण नवाचार बताया. उन्होंने गढ़वाली को मानक स्वरुप में लाने के लिए वर्तमान में जारी प्रयासों के बारे में अवगत कराया । श्री मुकेश नौटियाल ने गढ़वाली के हाशिये पर जाती बोलियों के पुनर्जीवन और युवा पीढ़ी की भूमिका पर केंद्रित वक्तव्य दिया। मंच को संबोधित करते हए हिंदी भाषा के संकट पर बाते करते हुए नौटियाल जी ने सीमित संसाधनों वाली उत्तराखंड की भाषाओं मख्यतः कुमाउनी, गढ़वाली, रवाल्टी और रं आदि की स्थिति पर चिंता व्यक्त की और समस्या समाधान के तौर पर भाषा में राजनीतिक विमर्श की आवश्यकता एवं प्रभावशीलता पर बल दिया। उन्होंने लोक भाषा के संरक्षण के लिए अधोसंरचना और संसाधनों की ज़रूरत को रेखांकित किया, साथ ही दूरस्त इलाकों में भाषाई विमर्श की अनुपस्थिति एवं प्रतिष्ठित वर्ग य शहरी वर्ग में व्याप्त चिंता पर प्रश्न उठाए। भाषा संस्थानों में स्थानीय भाषा को लेकर उदासीनता एवं जनगणना में भाषा की गणना की चुनौतियों पर चर्चा की। इस सत्र का संचालन डॉ पुष्पा बुढ़लाकोटी ने किया।
संगोष्ठी का दूसरा समानांतर सत्र ‘कुमाऊनी भाषा का सीमांत’ एवं ‘गढ़वाली भाषा का सीमांत’ था। जिसमें इस सत्र में राजी भाषा के विशेषज्ञ के रूप में डॉ प्रयाग जोशी, थारू भाषा के विशेषज्ञ के रूप में प्रो सिद्धेश्वर सिंह, रं भाषा के विशेषज्ञ के रूप में श्रीमती आभा गार्खाल बोहरा, नेपाली भाषा का प्रतिनिधित्व करते हुए डॉ दिनेश शर्मा बुक्सा भाषा का प्रतिनिधित्व करते हुए डॉ जगदीश पंत ‘कुमुद’, रंवाल्टी भाषा का प्रतिनिधित्व श्री महावीर रंवाल्टा, बांगानी भाषा का प्रतिनिधित्व श्री सुभाष रावत एवं जौनसारी भाषा का प्रतिनिधित्व श्री भजनदास वर्मा ने किया। इस सत्र का संचालन डॉ अनिल कार्की ने किया। इस अवसर पर कुमाऊनी गढ़वाली, बाँगड़ी, रँवाई, जौनसारी, रं, नेपाली भाषाओं के प्रमुख साहित्यकार, विश्वविद्यालय के विभिन्न विद्याशाखाओं के निदेशक, प्राध्यापक, कार्मिक, शोधार्थी, शहर के विद्वतजन मौजूद रहे।

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